Friday, December 4, 2009

आजकल

चोले के पीछे क्या है?
हमारे मुहल्ले में एक सिख बुज़ुर्ग रहा करते थे जिनका मैं बहुत आदर करता था। वह अक्सर कहा करते थे कि 'धर्मस्थलों में पलने वालाहमेशा लड़ता हुआ नज़र आएगा, वो चाहे बन्दर हो या इंसान' गुरुद्वारों की गुल्लक के आस-पास घूमते खालसों (सिख नहीं) को भी अक्सरआपस में जूतम-पैजार होते हुए जब भी मैं देखता हूँ मुझे वह बुज़ुर्ग याद जाते हैं।
इस बार 'दशम ग्रंथ' को लेकर उठा पटक शुरू हो गई है।
निशाने पर हैं अकाल तख़्त के पूर्व जत्थेदार प्रोफेसर दर्शन सिंह खालसा। कुश्ती सेपहले एक मंझा हुआ पहलवान जैसे दोनों जांघों पर ताल ठोक कर चुनौती देता-लेता है, वैसे ही धड़ल्ले से प्रोफेसर रागी ने अकाल तख़्त कीचुनौती स्वीकार कर ली है।
दशम ग्रंथ पर बहस बहुत पुरानी है। लगभग उतनी ही पुरानी जितना सिख धर्म पुराना है। आदि ग्रंथ श्री गुरु ग्रंथ साहिब को सिक्ख सम्प्रदायशुरू
से ही अपना गुरु मानता आया है। इसमें सिखों के दसवें गुरु 'गुरु गोबिंद सिंह' ने अपने पिता 'गुरु तेग बहादुर' की बाणी तो जरूर शामिल की थी लेकिन अपनी बाणी को इसमें शामिल नहीं किया। 'दशम ग्रंथ' के नाम से एक अलग ग्रंथ है जिसे बहुत से लोग गुरु गोबिंद सिंह द्वारारचित मानते हैं और बहुत से नहीं। अब सवाल यह उठता है कि दशम ग्रन्थ गुरबाणी है भी कि नहीं? सारे लफड़े का चौक-चौराहा यहीं कहीं है।नांदेड स्थित गुरुद्वारा हजूर साहिब में पहले आदि ग्रन्थ और दशम ग्रन्थ दोनों का ही पाठ होता था। आरती के समय दसवें गुरु की बाणी कापाठहोता था। फिर सत्तर के दशक में बंद कमरों में बैठ कर इन्होने फ़ैसला कर लिया कि जिस तरह आदि ग्रन्थ का पाठ (अखंड पाठ, साधारण पाठआदि) सिख पंथ में किया जाता है उस तरह दशम ग्रन्थ का पाठ किया जाए। फैसले तो यह बेचारे बहुत करते हैं मगर लागू नहीं होते।समस्या जस की तस खड़ी रहती है और मौका देख कर बवाल खड़ा कर लिया जाता है।
सन 1953 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी ने आदि ग्रन्थ की जो प्रतियां छपवायीं थी उसमे पता चला कि मंगलाचरण और शीर्षकों कीतरतीब बदल दी गई है। खूब हंगामा हुआ। कमिटी के कानों जूँ नहीं रेंगी। फिर चीफ खालसा दीवान वाले उठ खड़े हुए। 28 जून 1953 के दिनयह फ़ैसला हुआ कि संपादन का काम धार्मिक सलाह्कारों पर छोड़ दिया जाए, किसी तरह की इश्तिहारबाज़ी अथवा प्रेस प्रोपेगंडा कियाजाए और छापी हुई प्रतियों की बिक्री रोक दी जाए। इसके बाद कुछ दिनों के लिए सब ठंडे होकर बैठ गए।
गुरुद्वारी सियासत में उलझे खालसों की एक खास खूबी यह भी है की वे पढने लिखने से हमेशा परहेज़ करते रहे हैं। यही वजह रही होगी कि इनसमझदार खालसों के द्वारा उपलब्ध जानकारी के आधार पर मैक्स आर्थर मेकालिफ ने अपनी किताब 'सिख रिलिजन' में दशम ग्रन्थ किबाबत लिखा है 'बहुत सारे समझदार सिखों का यह मत है कि दशम ग्रन्थ में चरित्र और हिकायतों का हिंदुत्व से सम्बंधित हिस्सा
पढनेलायक नहीं है। आदि ग्रन्थ में दर्ज बाणी के यह समतुल्य नहीं है इसलिए इसे आदि ग्रन्थ में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। चरित्र औरहिकायतें जिसमें स्त्रियों के धोखा देने वाली कहानियाँ दर्ज हैं इनका अलग से संग्रह प्रकाशित किया जाना चाहिए जो धार्मिक कामों के लिए पढ़ी जाए, बल्कि दिल बहलावे के लिए पढ़ी जाए।
डॉ गोकुल चंद नारंग ने भी अपनी किताब ' ट्रांस्फोर्मेशन ऑफ़ सिखिस्म' दशम ग्रन्थ के बारे में लिखा है 'यह एक मिला-जुला संग्रह है।इसका कुछ हिस्सा गुरु जी कि अपनी रचना है और बाकि जो उनके दरबारी कवि थे उनकी रचनाएँ हैं। इस संग्रह को लिखने का श्रेय गुरु जी केनाम नहीं जा सकता.....यह किताब सिखों में बहुत आदरणीय नहीं समझी जाती क्योंकि वह इसके बड़े हिस्से को झूठ या असलियत से दूरमानते हैं।'
दूसरी तरफ़
चीफ खालसा दीवान के शोधकर्ताओं का दावा है कि 'दशम ग्रन्थ कि रचना आनंदपुर में ही हुई है और अगर यह बाणी दसवें गुरुकि रचना होती तो चौपाई 'हमरी करो हाथ दे रच्छा' का पाठ अमृतपान करते समय, राम अवतार का पाठ दसहरे के दिन, नवरात्रों में चंडीचरित्रों का पाठ और होली (होला मोहल्ला) के अवसर पर स्वर्ण मन्दिर में होता। 21 से 25 दिसंबर १९४४ तक गुरु गोबिंद सिंह के गुरुपर्व केसमय अकाल तख़्त में दशम ग्रन्थ का एक अखंड पाठ हुआ था। अकाल तख़्त के तत्कालीन जत्थेदार मोहन सिंह और शिरोमणि कमिटी केशोधकर्ता रंधीर सिंह उसमे स्वयं शामिल थे।
नांदेड में गुरु गोबिंद सिंह के
देहावसान के बाद उनकी पत्नी माता सुंदरी ने सिख विद्वान और गोबिंद सिंह के साथी भाई मनी सिंह को स्वर्णमन्दिर कि देख रेख के साथ-साथ गुरु गोबिंद सिंह की रचनाओं के संकलन की जिम्मेवारी दी थी। भाई मनी सिंह के एक पत्र जो उन्होंने मातासुंदरी के नाम लिखा था इस बात की पुष्टि हो जाती है की दशम ग्रन्थ की सभी रचनाएँ गुरु गोबिंद सिंह की ही लिखी हुई हैं। दशम ग्रन्थ का वहहिस्सा 'त्रिया चरित्तर' जिसपर सबसे ज्यादा शक किया जाता की यह गुरु जी की रचना नहीं है उसका ज़िक्र खास तौर से इस पत्र में आया है।भाई मनी सिंह ने साफ़-साफ़ लिखा है कि 'पोथियाँ जो झंडा सिंह के हाथ भेजी थी उसमें साहिब (गुरु जी ) की ३०३ चरित्र उपख्यान की पोथी हैजी जो भाई सिहां सिंह को दे देना जी'. इस पत्र को पढने के बाद शक की कोई गुंजाईश ही नहीं रह जाती।
जहाँ तक जाप साहिब का सवाल
है इसे गुरु गोबिंद सिंह ने कब और कहाँ लिखा इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन अगर्संकलनकरता ने इसकी पाण्डुलिपि पर अरम्भ्ह में जाप श्री मुखवाक पातशाही १० लिखा है तो जाहिर है रचना उन्ही की है। सिख विद्वान डॉ गोपालसिंह ने जाप साहिब का अंग्रेजी में अनुवाद किया था तो उसमे भी स्वीकार किया कियह रचना गुरु गोबिंद सिंह की ही है।
अकाल उसतति भी दशम ग्रन्थ का ही हिस्सा है। इसके भी आरंभ में 'उतार खासे दस्तखत पातशाही १०' लिखा मिलता है। इसके सवैयों कापाठ सिख अमृत बनते समय पिछले ३०० सालों से करते आए हैं। अब यह तो हो नहीं सकता कि सवैये गुरु साहिब ने लिखे हों और बाकि किरचना किसी और की हो।
बचित्तर नाटक उनकी आत्मकथात्मक रचना है इस रचना में 'तही प्रकास हमारा भयो, पटना साहब बिखे भव लयो' जैसी कितनी ही पंक्तियाँ
इस बात का सबूत पेश करती हैं कि गुरु गोबिंद सिंह के अलावा इसे कोई नहीं लिख सकता। 'चंडी दी वार' जिसे 'वार श्री भगवती जी' भी कहाजाता है, दशम ग्रन्थ का पांचवां अध्याय है। इसके पहले पद से ही अपनी अरदास (प्रार्थना) प्रारम्भ करते हैं। यह संस्कृत में लिखी मार्कंडेयपुराण पर आधारित वीर रस में लिखी एक अद्भुत रचना है जिसका प्रयोग युद्धक्षेत्र में अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिए किया जाता रहाहोगा।
दशम ग्रन्थ का अगला अध्याय ज्ञान बोध है। इसके प्रारम्भ में 'श्री भगवती जी सहाई पातशाही १०' लिखा है। अगले अध्याय 'चवी
अवतार' केआरंभ में भी 'पातशाही १०' लिखा मिलता है। इसमें बहुत सारी रचनाएँ उन्होंने राम या श्याम के उपनाम से लिखी हैं। अपने पुत्र गोबिंद कोमाता गुजरी इन्हीं नामों से पुकारती थी क्योंकि उनके ससुर का नाम हरगोबिन्द था। भाई काहन सिंह के महान कोश में भी इस बात काहवाला मिलता है कि गुरु गोबिंद 'राम' और 'श्याम' उपनाम (तखल्लुस) से लिखते थे। 'जो एह कथा सुने और गावे' से लेकर 'गोबिंद दासतुम्हार' तक्सरा पाठ हर रोज़ शाम के पाठ 'रहरास'में पढ़ा जाता है।इसमें गुरु गोबिंद का नाम स्पष्ट रूप से आता है। नामधारी विद्वान महाराजबीर सिंह का मानना है कि उन्होंने नाम के साथ सिंह का प्रयोग इसलिए नहीं किया क्योंकि यह रचना उन्होंने १७५५ में पूर्ण की थी जबकि१७५६ में अमृतपान करके उन्होंने नाम के आगे सिंह लगाया था। इसी ग्रन्थ में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज और भी है जिसका नाम हैज़फरनामा। यह रचना गुरु गोबिंद सिंह ने औरंगजेब को संबोधित करते हुए लिखी हैं। जिसमे उन्होंने अपनी जंग और पहाड़ी राजाओं केव्यव्हार का ज़िक्र किया है।
गाय के थान में ज़ख्म हो तो दूहते समय बहुत बिदकती है. जिस बात को लेकर खालसे सबसे ज्यादा बिदकते हैं वह है 'पख्यान चरित्तर'इसमें पौराणिक कथाओं के आधार पर विभिन्न चरित्रों का चित्रण किया गया है। अगर बूढ़े राजा सलवान की जवान बीवी लूणा और उसकेहमउम्र सौतेले पुत्र पूरण की कथा भी इसमे शामिल
है तो प्रोफ़ेसर दर्शन सिंह खालसा को दशम ग्रन्थ अश्लील क्यों नज़र आता है? शिव कुमारने लूणा लिखी तो साहित्य अकादेमी को उसमे कोई अश्लीलता नज़र नहीं आई बल्कि अकादेमी ने शिव को सम्मानित किया। छुटपन से हमइसे सुनते आए हैं, हमें इसमें कोई बुरे नज़र नहीं आई।
दर्शन
सिंह खालसा को तब से जनता हूँ जब वह दर्शन सिंह 'रागी' हुआ करते थे। तब वह काफी संतुलित व्यव्हार करते थे। संकोची भी इतनेथे कि सवाल उनसे किया जाता जवाब जत्थेदार मंजीत सिंह देते थे। उन दिनों उनकी दाढ़ी में एक भी बाल सफ़ेद नहीं था और कोई चीज़ उन्हेंअश्लील नज़र नहीं आती थी। अब जब उनकी दाढ़ी में एक भी कला बाल नहीं है और पड्पोतों को पूरण भगत का किस्सा सुनाने की उमर होआई है तो अमेरिका के सिख अवेयरनेस सेंटर जाकर उनकी कौन सी ग्रंथि इतनी अवेयर हो गई है कि उन्हें अचानक सब कुछ नग्न औरअश्लील दीखने लगा है?
विदेशों से धर्म के नाम पर मिलने वाली अथाह दौलत जब कोई अकेला अकेला डकारना चाहता है तो
धर्म की सियासत के शिखर-पुरूष काफरमान हुक्मनामे की शक्ल इख़्तियार कर ही लेता है।कुछ दिन हुक्मनामा-हुक्मनामा का खेल चलता है। एक चोला भीतर ही भीतर दूसरेचोले के साथ ठगी की रकम कैसे बांटता है, सज़ा (तनखाह) की मियाद इस पर निर्भर करती है। पेट भर जाने के बाद शेर शिकार छोड़ करपानी पीने चला जाता है, सियार शोर मचाना बंद कर देते हैं और हड्डियों पर बचे-खुचे गोश्त पर टूट पड़ते हैं। इस बार भी यही होगा।













Sunday, November 15, 2009

श्रद्धांजलि

प्रभाष जोशी जी की याद में
जुआ
किसी का हुआ


अबके प्रभाष जी गच्चा दे गये। वह भी उस वक़्त जब इस लोकतंत्र के चौथे खम्भे ने भी देह व्यापार शुरू कर दिया है। इस आपात स्तिथि में उन्होंने देह व्यापार के ख़िलाफ़ सिर्फ़ कलम ही नहीं उठा ली थी बल्कि कुलदीप नय्यर जी के साथ एक निर्णायक लड़ाई का ऐलान भी कर दिया था। लड़ते हुए वह चले जाते तो और बात थी मगर सटोरियों के क्रिकेट जैसे खेल की वजह से उन्होंने दिल क्या छोड़ा दुनिया छोड़ दी यह बात अपन को कुछ जमी नहीं।इसलिए उनकी मौत का सदमा कुछ ज्यादा भारी है।

उन्हें क्रिकेट की लत थी और कोई भी लत, जिंदगी से कम कुछ नहीं मांगती। यही लत उनकी जान ले बैठी।जिसका मुझे बेहद अफ़सोस है। उन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि बाज़ार और सट्टेबाज़ इसी खेल के जरिये उन जैसे सब लोगों की सुच्ची सोच को नियंत्रित कर रहे हैं जो उनके खिलाफ हैं। क्यों इस खेल कि प्रतियोगिताएं को चुनाव के चलते आगे-पीछे कर दिया जाता है? कैसे 'एक रोज़ा मैच' या २०-२० के (जिसे प्रभाष जी बसम-बीस कहते थे) घमासान के आयोजन के जरिये नंदीग्राम,मंहगाई, ज़मीन अधिग्रहण, आतंकवाद जैसे तमाम मुद्दों से जुड़ी आदमी की सोच को कई घंटे पीछे धकेल दिया जाता है और आदमी को पता भी नहीं चलता। कैसे आम आदमी सियासत के दल्ले के बारे में नहीं बल्कि सचिन के बल्ले के बारे में अपने बच्चों को रस ले-लेकर जागृत करता है?

प्रभाष जी कभी जान ही नहीं पाए, न उन्होंने कभी जानने की कोशिश की कि हमारे बच्चों के बस्ते,कापियों, फुट्टे-जुराबों से लेकर दिमाग के भीतर तक उनके गाँधी और मेरे भगत सिंह की तस्वीरों की जगह सचिन और शेन वार्न की तस्वीरें कौन चिपका गया? हमारे सपनों के भारत के हर नागरिक के भविष्य के आगे यही क्रिकेट कैसे एल. बी. डब्ल्यु. साबित हो रहा है? वह बड़े फख्र से ख़ुद को 'क्रिकेट का बावला' कह-कह कर मस्ताते रहे।

मुझे लुडविग बॉर्न की कही एक बात याद आती है। लुडविग बॉर्न ने एक बार लिखा था
"यूरोप के जुआघरों में हर साल जितनी ऊर्जा और मानसिक शक्ति खर्च होती है, यदि उसे बचा लिया जाए तो वह रोम के लोगों को संस्कारित करने और रोम के इतिहास को बचाने के लिए काफी होगीलेकिन जो है सो हैपैदा होने वाला हर आदमी रोमन होता हैबुर्जुआ समाज उसमें से रोम को निकाल देना चाहता है, इसलिए हैं जुए के खेल..... ।"

क्रिकेट की इस लत की वजह से वह जो रस ले-लेकर लिखते थे, उसको लेकर सबने उन्हें बथुए के झाड़ पर चढाये रखा। आज भी उनके क्रिकेट के जनून को सब महिमामंडित करते हुए दिखाई देते हैं। कोई इस बात को लेकर चिंतन-मनन की स्तिथि में नहीं दिखाई देता कि अगर उन्हें यह लत होती तो वे क्या कुछ और कर जाते। जब वक्त था तो किसी ने कुछ कहा नहीं अब तो ग़ालिब को याद कर यही कहा जा सकता है कि यूँ होता तो क्या होता?

तमाम असहमतियों के बावजूद उनकी उपस्तिथि हमेशा बल देती थी। जब भी कोई संकट आता है छोटे हमेशा बड़ों के मुंह की तरफ़ देखते हैं। हम भी देखा करते थे कि देखें प्रभाष जी क्या कहते हैं। बेशक उनसे शत-प्रतिशत सहमति हों, हों तब भी। बुझने से पहले जैसे दिया एक बार जोर से जलता है, वैसा ही कुछ हुआ सा लगता है। वह भी पिछले कुछ महीनों से जरूरत से ज़्यादा सक्रिय हो गए थे। किसानों कि ज़मीनें छीनी जाने पर उन्हें इस झूठे लोकतंत्र पर शंका की दृष्टि से देखते हुए देखना अच्छा लगता था। महाराष्ट्र की एक महिला मजदूरिन ठाकुबाई के हक में उनका कहना 'ठाकुबाई ने ठोका है' सुनकर नशा सा हो जाता था और मैं भूल जाता था उनके माथे पर चिपकी उस गोंद-पर्ची पर 'रूपकंवर' लिखा है।

फोन पर उनका झट से गद-गद हों जाने और फट से द्रवित हों जाने पर पिता जी की बात याद आती कि 'बुढ़ारी में होता है।' उनकी व्यस्तताओं को देखकर लगता था कि 'बाबा नागार्जुन जैसे ही हैं।'

उधर
इंडियन एक्सप्रेस वाले शेखर गुप्ता आदिवासियों के अधिकारों की बात करने वालों को 'झोलाछाप बुद्धिजीवी' कह कर गरियाते और इधर प्रभाष जी बड़ी निडरता से जंगल और ज़मीन के असली हकदारों के पक्ष में अपनी बात कुछ इस तरह से रखते कि 'हमारे जंगल आदिवासियों ने नहीं काटे हैं विकास करने वालों ने काटे हैं। हमारे पर्यावरण और पारिस्तिथिकी को वनवासियों से खतरा नहीं है। खतरा उन लोगों से है जो यूरोप-अमेरिका की नक़ल के विकास से सर्वनाश के रस्ते पर चल निकले हैं।' ऐसा कहते-लिखते हुए सर्वेश्वर जी के शब्दों में वे और सुंदर दिखने लगते थे।सर्वेश्वर जी कि एक कविता की आखरी पंक्तियाँ कुछ इस तरह से हैं कि 'जब भूख के खिलाफ लड़ने के लिए आदमी उठ खड़ा होता है और सुन्दर दिखने लगता है।'

अपनी बात को कहने कि बजाये लिख कर वह ज्यादा बेहतर ढंग से संप्रेषित कर पाते थे। अपने बाद वाली पत्रकार पीढ़ी को लेकर भी वह कितना दिल से सोचते थे इस बात का पता मुझे तब पता चला जब राकेश कोहरवाल के गुज़र जाने के बाद उन्होंने 'कागद कारे' में 'हाथों पर खून' लिखा। उस लेख की आखरी पंक्तियाँ थीं 'राकेश , अलोकऔर महादेव तीनों मुझे अपराध बोध देते हैं। कैसे होनहार जीवन कैसे बिगड़ गए। क्या खून मेरे हाथों पर है?'

मालिकों के किसी भी दबाव में आकर किस तरह धड़ल्ले से पत्रकारिता की जाती है, इसकी वे एक मिसाल थे।सियासी और धार्मिक जत्थेबंदियों से विपरीत परिस्तिथियों में जिस ठसके के साथ वह पेश आते रहे, देखकरआश्चर्य होता था कि यार ये बन्दा अभी तक वर्ण व्यवस्था का समर्थक कैसे हो सकता है? अखबार की पवित्र जगह को बेचकर अपवित्र करने वाले तो बेशक उनके जाने से बहुत खुश होंगे और वह भी जो उनसे पूछते थे 'खतना करवा लिया क्या?' और वह भी...
सुना है उनके आखरी शब्द थे 'अपन मैच हार गए।' ऐसा हो तो नहीं सका लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि भारत-ऑस्ट्रेलिया की इस सीरीज़ के शुरू होने से पहले ही भारत के हार जाने की सट्टा बाज़ार की ख़बरों पर उन्हें अबके विश्वास हो जाना थाऔर कागद कारे में उन्होंने यही लिखना था :'जुआ किसी का हुआ'

Sunday, September 27, 2009

दिनमान

तुम सत्तर करोड़ हो वे सिर्फ़ साढ़े पाँच सौ
गर्व से कहो

मैं नक्सलवादी हूँ


आज सचमुच बहुत ख़ास दिन है। जैसे कि मुझे संगीत बहुत सुहाता है और आज लता मंगेशकर का जन्म दिन है। मुझे बंदूकची बड़े प्यारे लगते हैं और आज अभिनव बिंद्रा का भी जन्म दिन है। युद्ध के रास्ते असत्य पर सत्य की विजय पर मेरा अटूट विश्वास है और आज विजय दशमी है। लेकिन यह दिन आज जिस बात के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह का आज १०२वां जन्म दिन। एक ऐसा शख्स जो हमेशा से मेरा आदर्श रहा है और मेरा मानना है जिस तरह से हुक्मरान नक्सलवाद को परिभाषित करते हैं तो उन्हीं की परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि भगत सिंह देश के पहले नक्सलवादी थे और उनसे मेरा रोम-रोम इस कदर जुदा हुआ कि मैं तो गर्व से कहता हूँ कि मैं नक्सलवादी हूँ।

इस बार स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले के प्राचीर से मनमोहन सिंह ने यह पहली और आखरी बार नहीं कहा था कि नक्सलवाद इस देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है। यह बात उन्होंने और उनके कई मंत्रियों ने कई बार दोहराई है। जब कई नेता मिलकर एक बात बार बार दोहराते हैं तो मुझे हिटलर का लंगोटिया गोबल्स याद आ जाता है जो कहा करता था कि एक झूठ को सौ बार दोहराओ तो लोग उसे सच मानने लगते हैं। हर दूसरे दिन कोई न कोई नेता इस झूठ को दोहराता है तो सवाल यह उठता है कि आख़िर कारन क्या है कि सुखबीर बादल भी अचानक आधी रात को उठके क्यों चिल्लाने लगता है कि नक्सलवाद से पंजाब को भरी खतरा है? जबकि एक भूतपूर्व नक्सलवादी नेता जो बाद में खालिस्तानियों के संग जादू कि जफ्फी डाले फिरता रहा और जिसका नाम मालविंदर माली है, उसके पिता प्रकाश सिंह बादल का निजी सचिव है. यह बात आम लोग बेशक न जानते हों पर सुखबीर तो जानते ही हैं फिर भी उन्हें नक्सलवाद से भरी खतरा क्यों महसूस हो रहा है? पंजाब ही नहीं महाराष्ट्र, केरल, असम, गुजरात आदि हर राज्य का हर बड़ा नेता चिल्ला रहा है कि नक्सलवाद से उन्हें भारी खतरा है। आखिर चक्कर क्या है?
चार दशक पहले बंगाल के एक छोटे से गाँव नक्सलबादी से उठा यह आन्दोलन पाँच साल के भीतर ही दम तोड़ गया था। मुख्य नेता चारू मजुमदार नहीं रहे। कानू सान्याल, जंगल संथाल जैसे बहुत से नेता निष्क्रिय हो गए या यों कह लीजिये उनका मार्क्सवाद पर से विश्वास ही उठ गया। बाकि बचे चंद्रपुल्ला रेड्डी और बी नागी रेड्डी तो वह दोनों इस बात पर इस बात पे मुंह फुला कर अलग हो गए कि किसानों में काम करना चाहिए या मजदूरों में। चंद्रपुल्ला रेड्डी ने किसान संभल लिए और नागी रेड्डी ने मजदूर। वो भी जब नहीं चले तो चल बसे। सत्य नारायण सिंह जो इनमे से सबसे अच्छे वक्ता थे और जिनका हिन्दी भाषी क्षेत्र में अच्छा खासा रुतबा था इमर्जेंसी के बाद जनता राज में माफीनामे पर दस्तखत करके बहुत से साथियों सहित बहार आ गए। बाहर उनकी इतनी तोये-तोये हुई और ज़मानत दिल पर ऐसा बोझ बनी कि दिल का दौरा पड़ने से चल बसे। एक कोंडापल्ली सीतारमैया बचे रहे एक जंगलों में यूनिटी सेंटर चलते रहे एक नाग भूषण पटनायक थे जो जेल में थे और जिन्हें फँसी कि सजा सुना दी गयी थी।
सभी ग्रुपों की यह हालत हुई कि नेताओं के नाम कि बजाय यह ग्रुप इनकी पत्रिकाओं के नाम से पहचाने जाने लगे. चारू मजुमदार वाले सी पी आई (एम् एल) यानि कि 'लिबरेशन' ग्रुप कि कमान कानपुर के एक इंजिनियर विनोद मिश्रा(वी एम् ) ने संभाल ली थी।उसे विचारधारा के प्रति समर्पित ऐसे आत्म बलिदानियों की फौज मिल गयी थी कि उसने कुछ ही वर्षों में बिहार, बंगाल से लेकर दिल्ली तक अच्छा काम फैला लिया था। उसका किसान संगठन बिहार के जातीय अंतर्विरोधों के चलते अच्छी पकड़ बना गया और इसका वी एम् को अच्छा फायदा हुआ।
उसने मध्य वर्ग में खासकर छात्रों और बुद्धिजीवियों के बीच फैलते अपने जनाधार के लिए एक खुला मोर्चा भी खोल दिया। जिसका नाम इंडियन पीपुल्स फ्रंट था। नागभूषण पटनायक जब जेल से परोल पे रिहा हुए तो उन्हें उसने इसका अध्यक्ष बना दिया। नाग भूषण जी सज्जन पुरूष थे अपनी विचारधारा के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित सो अपनी अन्तिम सांसों तक उन्होंने इस जनसंगठन को अपने तमाम बीमारियों के बावजूद एक विशालकाय जनसंगठन बनने में अद्भुत योगदान दिया। बाद में फ्रंट चुनावों में भी भिड़ने-जीतने लगा और अंततः पार्टी में शामिल हो गया। वी एम् बेचारा अपनी महिला कार्यकर्ताओं से शादी करते-करते थक गया था।
फिर वह अपनी भूतपूर्व बीवियों से पैदा हुए अपने बच्चे अगवा करवाने लगा. इसी थकान कि स्तिथि में जब उसे पता चला कि उसके जैसे लाखों नौजवान जो अपना भविष्य दाव पर लगा कर उसके साथ चले थे उसकी हरकतों को बर्दाश्त करते करते थक गए हैं। सो वह भी चल बसा।

सीतारमैया के अलावा बिल्कुल छोटे छोटे ग्रुप बचे थे जिनका जनाधार बिल्कुल न के बराबर था पर बहुत से लोग इनके समर्थक थे, गाँव में भी और शहरों में भी। जो लोग मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी विचारधारा से सहमत थे वे लोग इन छोटे-छोटे ग्रुपों के लगातार संपर्क में रहते हुए सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों में सक्रिय रहे और फैलते गए। इनमें छात्रों, शिक्षकों, वकीलों, लेखकों, पत्रकारों कि एक भारी तादात थी। इनको सभी राज्यों की सरकारों ने दमन के रास्ते दबाने का प्रयास किया। संस्कृतिकर्मी ग़दर को जेल में डाला। डॉ स्वामीनाथन जो मानवी अधिकार संगठन चलते थे उनकी हत्या दिन दिहाड़े उनके क्लिनिक में की। मगर यह संख्या दिन प्रतिदिन बढती ही चली गयी।
सीतारमैया ग्रुप से जुड़े माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एम् सी सी ) जैसे बहुत से ऐसे ग्रुप थे जो संसदीय संघर्ष को सही नहीं मानते थे और जिनका मानना था कि सशत्र क्रांति के जरिय ही इन्कलाब लाया जा सकता है वह भी मजबूत होते चले गए। इसका कारण था राजकीय दमन निरंतर दमन। पहले बड़े भूमिपतियों की सेनाएं और प्रशासन इनके विरोध में थे और वोटों कि राजनीति हमेशा इनके खिलाफ रही। क्या मनमोहन सिंह नहीं जानते अरवल काण्ड कहाँ हुआ था? क्या उन्होंने सचमुच ब्रह्मर्षि सेना का कभी नाम नहीं सुना? क्या सचमुच उन्हें नहीं पता कि कालाहांडी नाम की जगह किस देश में है? मनमोहन सिंह बेचारे कुछ नहीं जानते. बहुत ही 'भोले-भाले' हैं।
1991 से ही जब विकास के नाम उद्योगपतियों के फायदे के लिए पाँच हज़ार साल पुराणी कृषि संस्कृति के वाहक और अन्नदाता भूमिपुत्रों से उनकी ज़मीन छीनी जाने लगी तो मुझ जैसे कई लोगों ने उनके समर्थन में में आवाज़ बुलंद की. १८९४ के अंग्रेजों के बनाये भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध भी किया. मगर नंदीग्राम तक उन्हें कोई नक्सलवादी दिखाई नहीं दिया था. जैसे जैसे राजनितिक गलियारों में यह बात फैली कि १९९१ से लेकर १९९६ तक आंध्र प्रदेश,महारास्त्र, मध्य प्रदेश और ओड़ीसा जैसे चार नक्सल प्रभावित राज्यों में पचास हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा रकम खर्च हुई और इससे मुंह मीठा करने वालों में सत्ता और विपक्ष दोनों के राजनेता शामिल थे तो ज़ाहिर सी बात है सबको अपने अपने प्रदेश में नक्सलवादी दिखाई देने लगे।
माओवादियों ने भी अराजक हिंसा फैला कर जहाँ एक तरफ़ सत्ताधारियों को सरकारी खजाना लूटने के रास्ते खोल दिए वहीं संसदीय चुनावों का बहिष्कार करके अपनी लड़ी हुई लडाई का फायदा कांग्रेस और ममता बैनर्जी को पहुँचाया। सत्ताधारियों ने इसे विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बताया है।
आज मुद्दा यह नहीं है कि नेताओं में से कौन सही है कौन ग़लत। मुद्दा यह भी नहीं है लूट का माल कहाँ जाता है।
हम यह भी मान लेते हैं कि मनमोहन सिंह को पता ही नहीं है कि देश को कौन लूट रहा है? पर यह ज़रूर है कि क्या एक गाँव, एक तहसील या एक जिले में एक भी इमानदार और पढ़ा-लिखा इंसान नहीं है जो न्याय के पक्ष में खड़ा हो सके। बस ऐसे साढे पाँच सौ इमानदार लोगों कि ज़रूरत इस देश को है। जो एक लोकपक्षीय सरकार नहीं वैकल्पिक लोकपक्षीय व्यवस्था के निर्माण के लिए आगे आए। इसकी संभावना पर शक मत करो। आज भी खेती से जुड़े लोगों कि गिनती सत्तर करोड़ है। सभी पार्टियों के सिर्फ़ हजार बारह सौ लम्पट इस देश का भविष्य उलट-पलट रहे हैं। हमारे बच्चों का भविष्य साढे पाँच सौ लोगों ने दाव पर लगा रखा है।
शहीद भगत सिंह ने कहा था कि गोरे अँगरेज़ चले जायेंगे फिर हमारे ऊपर काले अंग्रेजों का राज़ होगा। यह काले अँगरेज़ इतनी जल्दी और आसानी से हमें छोड़ने वाली नहीं हैं। यह हमें कभी माओवादी और कभी नक्सलवादी कहेंगी। पर अब हमें अपनी ज़मीन के टुकड़े के लिए नहीं पूरे देश के लिए लड़ना होगा. राजनीति से शर्म करने कि बजाये खुल के सामने आकर कहना होगा कि अगर शोषणमुक्त समाज कि कल्पना करना नक्सलवाद है तो शहीद भगत सिंह नक्सलवादी था और मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं नक्सलवादी हूँ।

Saturday, June 6, 2009

पत्रकारिता की पतनलीला

अभी बहुत दिन नहीं हुए। चुनाव का प्रचार अभियान शुरू होने की तैयारियों को देखते हुए लग रहा था कि अबके कुछ 'हटके' ही होगा। कहीं 'जय हो' ख़रीदा जा रहा था कहीं 'भय हो' की तैयारियां चल रही थीं। कोई चौक- चौराहा, नुक्कड़- कोना ऐसा नही था जहाँ सफ़ेद झूठ बोलते पोस्टर, होर्डिंग वगैरह उतारे लगाये जा न रहे हों। छुठ्भैये नेताओं की जुबान की मिठास देखते बन रही थी। उपर से बन कर आयी योजनाओं को निचले स्तर तक कैसे लागू करना है इस बात को लेकर सभाएँ हो रही थीं। सभाएँ कहाँ कहाँ होंगी तय हो गया। बिजली चोरी के लिए कुण्डी कहाँ लगानी है, यह फ़ैसला टेंट-तम्बू वालों पे छोड़ दिया गया। लेकिन जब ख़बर मिली कि कई अख़बारों ने चुनाव स्पेशल टेरिफ कार्ड छपवायें हैं तो पसीने छूट गए। गैर पत्रकार मित्रों से मैंने इस बात का जिक्र भी नही किया क्योंकि सचमुच शर्म आ रही थी।
पत्रकारों या अखबार मालिकों को कोई शर्म-वर्म नही आयी। ख़बरों कि पवित्र जगह बड़े धड़ल्ले और बेशर्मी के साथ बेची गयी। पहले बॉक्स आइटम के नीचे 6 पॉइंट का विज्ञापन छाप दिया करते थे, इस बार तो वह भी नही किया।
खबरों के स्तर और भाषा से साफ़ पता चलता था कि खबरें पार्टियों के नुमायेंदे ही लिख रहे हैं। सबसे बड़े अखबार समूह टाईम्स ने तो बाकायदा एक वेबसाइट पर पारदर्शिता का ढोंग करते हुए तो नोट बटोरे। अब तो किसी को बताते हुए भी शर्म आती है कि मैं इसी समूह के दिनमान से बरसों जुडा रहा हूँ।

पिछले दिनों जनसत्ता में प्रभाष जी का कॉलम 'कागद कारे' पढ़ा तो दिल को बड़ी राहत मिली कि अभी सबकुछ ख़त्म नहीं हुआ। दल्लागिरी के भरतनाट्यम को देखते हुए जो लोग अपमानित महसूस करते होंगे, सिर्फ़ वही प्रभाष जी के इन शब्दों के पीछे छुपी पीड़ा को समझ सकते हैं, 'भ्रस्टाचार को सदाचार बनाने कि टाईम्स कि दलील का मतलब है कि बलात्कार करना और उसकी इच्छा रखना स्वाभाविक है और हर आदमी चाहता है । इसलिए आपके घर कि किसी माँ, बेटी , बहन, भाभी से कोई बलात्कार कर जाए तो तो नाहक हो हल्ला और पाखंड मत करो । बलात्कार को कानूनी रूप से मंज़ूर कर लो। उसके ख़िलाफ़ दंड और वर्जना मत बढाओ । बलात्कार से पैदा हुए बच्चे/ बच्ची का तिलक करो और वैध उत्तराधिकारी मान लो । इससे बलात्कार भ्रस्टाचार नही रहेगा सदाचार हो जाएगा। आख़िर बलात्कार आदमी कि सहज प्रवृति है और स्वस्थ और सभ्य समाज सहज प्रवृतियों को मान कर ही विकास करता है...........' 'विज्ञापन को ख़बर बनाकर बिना बताये कि यह पैसा लेकर छपी गयी है पठाक के विश्वास को तोड़ना है और उसके साथ खेल करना है. ख़बर को अखबार कि पवित्र जगह इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पठाक के विश्वास कि जगह होती है।'
सचमुच पवित्रता का बलात्कार हो रहा था तभी मुझे ड्राइवरों की एक टोली की बातचीत सुनने को मिली जो एक दूसरे को बता रहे थे कि यह पैसे लेकर छापी जा रही खबरें हैं। दिल को तसल्ली हुई की लोग जागरूक हो रहे हैं।
बहुत सा झूठा प्रचार करने वाले हारे तो और उम्मीद जागी। ६ जून के 'जगबानी' में भिंडरावाला को अमर शहीद बताते हुए शहीदी समागम के इश्तिहार छपे देखे तो बस मुँह से यही निकला 'लाला जी भगवान् आपकी आत्मा को शान्ति और आपके बच्चों को सदबुध्धि दे' .

Monday, May 25, 2009

हिंसा की आग में झुलसता पंजाब
आस्ट्रिया (वियना) में श्री गुरु रविदास सभा नामक
एक मठ में डेरा सचखंड बल्लां के मठाधीश संत निरंजन दास और संत रामानंद दास आपने अनुयाईयों के साथ बीते रविवार को सत्संग कर रहे थे तभी कहते हैं कि विरोधी गुट के छह पगड़ीधारी लोगों ने उनपर हथियारों के साथ हमला बोल दिया। इस हमले में लगभग ११ लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। इस हमले की खबर मिलते ही पूरे पंजाब में डेरे से जुड़े अनुयाईयों के आक्रोश का लावा बह निकला। इसके बाद संत रामानंद और एक अन्य अनुयायी की मृत्यु ने आग में घी का काम किया

जितने मुंह उतनी बातें।
आम तौर पर फसादों के साथ साथ अफवाहों का बाज़ार भी गर्म हो जाता है। कोई कहता है पिछले चुनावों में ढिबरी टाइट हो जाने की वजह से अकाली नूरमहल के चुनाव स्थगित करवाना चाहते थे सो सब कुछ उनके इशारे पर हुआ। किसी का कहना था की यह हमला अकाली दल और गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के लोगों ने इस लिए किया क्योंकि यह मठ दलित वर्ग के लोगों का है और उन्होंने इस बार अकाली दल को वोट नहीं डाले। किसी का कहना था की यह झगडा दरअसल इसी समुदाय के दो गुटों का है। मेरे कुछ पत्रकार भाई यह भी बता रहें हैं की इन्हें पिछले कुछ दिनों से आस्ट्रिया में रह रहे आतंकवादियों से धमकियाँ मिल रही थीं की वे एक और गुरुद्वारा जो वहां बनाना चाहते हैं न बनायें । चूँकि यह तथाकथित सत्संग भी उस गुरूद्वारे के निर्माण से सम्बंधित था इसलिए उनहोंने हमला किया। कुछ लोग तो इस घटना को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से डेरा सच्चा सौदा और गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की पिछले एक साल से चल रही लडाई से भी जोड़ कर देख रहे हैं। इस घटना के पीछे सच्चाई जो भी हो देर सबेर सामने आ ही जायेगी लेकिन इस घटना से और उसके बाद उपजी या उपजाई गयी हिंसा से कुछ ऐसे सवाल उठ खड़े हुए हैं जिन पर विचार करना समय की दरकार के तहत निहायत ही जरूरी हो गया है।


जहाँ कहीं भी धर्म होता है , वहीं धर्मान्धता होती है। जहाँ धर्मान्धता होती है वहीं से ही धार्मिक उन्माद पैदा होता है।
तमाम
दुखों से राहत और कभी न मरने की चाहत से निकली मोक्ष की अभिलाषा और इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए की गयी ईश्वर की परिकल्पना के तहत, अपनी आदतों और सुविधाओं के करीब आती मान्यताओं ने मनुष्य को जो भी धर्म मुहैया करवाया उसने स्वीकार कर लिया. हजारों वर्षों की पीढी दर पीढी चलती आयी इस जीवन शैली ने धर्म को एक ऐसी अफीम में परिवर्तित कर दिया है जिसके नशे में आज सारा विश्व गर्क है। नशा इन्सान की सबसे बड़ी कमजोरी होता है और इसी बात को ध्यान में रखते हुए सदियों पहले से ही इसने पहले राजशाही और फ़िर सामंती व्यवस्था की देख रेख में संस्थागत स्वरुप लेना शुरू कर दिया था और वही बड़ी बड़ी संस्थाएं धीरे धीरे मठों और फ़िर किरयाना दुकानों की तरह घर मुहल्लों में फ़ैल गयीं। इन्होने इंसान को इंसान नही रहने दिया बल्कि एक विशेष धार्मिक इकाई के रूप में परिवर्तित कर दिया था. पिछली एक सदी में तो इसने एक बहुत बडे विश्व स्तरिए मंदीमुक्त उद्योग का रूप धारण कर लिया है। जाहिर सी बात है उद्योग का प्रतियोगिता और मुनाफे से सीधा सम्बन्ध होता है. मगर प्रतियोगिता जब 'गला काट दौड़' और मुनाफा, 'लालच' में तब्दील हो जाता है तो इर्ष्या और नफरत की आग भड़कती है, परिणामस्वरूप अगर किसी मठाधीश पर गोली आस्ट्रिया में चलती है तो कुछ ही घंटों के भीतर इसके विरोध में पंजाब धू -धू करके जलने लग जाता है।

अगर इस पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखें तो एक बात जो खुलकर सामने आती है वह यह है कि इस उन्माद का लावा सिर्फ़ शहरों में ही क्यों फूटा? विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों में बँटे इस समाज में (खासकर पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में) अगडों और पिछडों के बीच भेदभाव का ज़िक्र अक्सर होता रहता है । यही कारण है कि लगभग सभी गांवों में अन्य गुरुद्वारों के साथ पिछडों के रामदासिये गुरूद्वारे भी होते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि अगडों की भेद- भाव कि भावना के चलते ही पिछडों के अलग गुरूद्वारे वजूद में आए । लेकिन पंजाब का ग्रामीण ढांचा और जीवन शैली कुछ ऐसी है कि वहाँ कम अज कम संवादहीनता कि स्तिथि नही है । एक दूसरे के पारस्परिक सहयोग और सामंजस्य से चल रहे इस जीवन में जड़ता नहीं आयी है। इसलिए वहाँ जमीनी विवाद टकराव का रूप तो अक्सर ले लेते हैं लेकिन यह एक पारिवारिक फसाद से ज्यादा बडा रूप ग्रहण नहीं करता.

भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता की समस्या जितनी सूक्ष्म और जटिल है जातिये समस्या भी उससे अलग नहीं है। लेकिन देश भर में हुए असंतुलित आर्थिक विकास की तरह सामाजिक समस्यायों के स्वरुप भी पूरे देश में भिन्न भिन्न है. पंजाब में तो यह बिल्कुल ही अलग नजर आता है।

पिछले तीन दशकों के दौरान खासकर हरित क्रांति के बाद आयी थोडी बहुत सम्पन्नता के साथ साथ ही गैर सिक्ख समुदायों ने भी अनुयाईयों की अच्छी खासी फसलें तैयार की। निरंकारी, राधास्वामी और अन्य कई समुदायों ने सिक्ख गुरुद्वारों की कमाई में मोटी सेंध लगाई। सिक्ख श्रद्धालू बड़ी तेजी से इन समुदायों में शामिल हो रहे थे और इसमे एक बड़ी गिनती पिछडों की भी थी क्योंकि उन्हें एक विशाल जन समुदाय से अपनत्व और बराबरी का सम्मान मिल रहा था। गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी से जुड़े उन सिक्खों के सीने पर सौंप लोटने लगे थे, गुरुद्वारा प्रबंधन जिनके लिए हमेशा से धंधा रहा है । दांव पर लगा वर्चस्व , प्रतिष्ठा, गोलक आदि की वजह से उन्होंने निरंकारियों से उलझना शुरू किया जो अन्ततः आतंकवाद का रूप धारण कर ले गयी।

निरंकारी और राधास्वामी जैसे बड़े बजट के बाबा व् समुदायों के साथ गांव, जिला और राज्य स्तर के बाबाओं की दुकाने सजने लगी थी और कम बजट वाले श्रद्धालू उनकी तरफ आकर्षित होने लगे थे। डेरा सच्चा सौदा, संत आसा राम , मुरारी बापू आदि किसी ज़माने में लो बजट बाबाओं की गिनती में आते थे। यह बात और है की बाद में इन्होंने तरक्की के कई कीर्तिमान स्थापित किए। मुझे नहीं लगता की रविवार से पहले आपने कभी डेरा सचखंड बल्लां का नाम सुना हो। मैंने तो नहीं सुना था। न ही मुझे इस बात का इलम था कि इन लो बजट और टैक्स फ्री डेरों का जनाधार इतना बड़ा हो सकता है कि वह विश्व कि सबसे बड़ी रेल व्यवस्था को ३६ घंटे के लिए पंगु साबित कर दे।

खुम्बों कि तरह उग आए इन डेरों और बाबाओं के अनुयाईओं का नेत्रित्वहीन जनसमुदाय, नेतृत्व के बिना कैसे एक उन्मादग्रस्त भीड़ में तब्दील होकर, जब स्पष्ट रूप से कोई दुश्मन सामने ना हो तो अपने गुस्से का इज़हार गूंगी गाड़ियों को फूक कर करता है, इसका इससे बेहतर उदहारण शायद ही कहीं देखने को मिले।

तमाम मठाधीशों, सरकार और प्रशासन के सर ठीकरा फोड़ कर हम अपनी जिम्मेवारियों से नही बच सकते। चाय के प्यालों में क्रांति का उफान खड़ा करते बुद्धिजीवियों के लिए यह कहना तो आसान है कि अगडों के भेद भाव कि वजह से ही पिछडों ने अलग 'धर्मस्थलों' का निर्माण किया मगर यही बुध्धीजीवी इस बात का जवाब नही देते कि दलित लेखकों ने दलित साहित्य जैसे 'शरणस्थलों' का निर्माण क्यों किया? खैर यह कहानी फ़िर सही।

समाज में अभिव्यक्ति कि तरह विश्वास कि भी स्वतंत्रता तो होनी चाहिए लेकिन किसी भी तरह के पूर्वाग्रह, कुंठा ,भय और संशय से मुक्त आधुनिक समाज का निर्माण तभी हो सकता है जब विश्वास कि रुढियों के खिलाफ एक निरंतर संघर्ष जारी रहे।
अल्पसंख्यकों के साथ पारस्परिक विश्वास, भाईचारे और विलयन की स्वाभविक सांस्कृतिक प्रक्रिया के लिए उपायों के गंभीर प्रयास की आवश्यकता पर भी बल दिया जन चाहिए।

छदम बाबाओं की तरह छदम बुधिजीविओं की भी भरमार हो गयी है। अच्छा खासा संपन्न अधिकांश पंजाबी बुद्धिजीवी वर्ग रहन सहन से आधुनिक हुआ है, विचार के स्तर से कतई नहीं। यही कारण है कि उनके सामने प्रेम कविता का ज़िक्र आते ही पाब्लो नेरुदा का हाथ छोड़ कर वे बाबा नानक की गोद में जा बैठते देखे जा सकते हैं।यह लोग मार्क्सवाद पर संवाद कम करते हैं मार्क्सवादियों की आलोचना ज्यादा. हो सकता है आपके सामने बैठा कोई नामचीन आलोचक भरी सभा में अचानक पाब्लो पिकासो और विंसेंट वॉन गौग को दुनिया का सबसे वाहियात पेंटर घोषित कर दे और अन्य सभी को आप उसके समर्थन में मुंडी हिलाते देखें । साहित्य और कला की इस वैचारिक दरिद्रता के माहौल में आधुनिकता के पक्ष में बहस की कोई सम्भावना पैदा करने में बुद्धिजीवी वर्ग की सक्षमता पर मुझे पूरा शक है. जो डेरा सच्चा सौदा विवाद से लेकर अब तक इस जलती हुई आग के विरूद्व कम अस कम एक हस्ताक्षर अभियान चला कर विश्वास की रुढियों के खिलाफ संघर्ष की एक छोटी सी पहल भी नही कर सके उन तथाकथित बुद्धिजीवियों से क्या उम्मीद रख्खी जा सकती है? कभी भी इस अति ज्वलंत मुद्दे पर विचार करने के लिए उससे आधे लोग भी एकजुट नही हुए जितने किसी विदेशी कवित्री को देखने के लिए जुट जाते हैं तो ऐसे में बुद्धिजीवी वर्ग कि सक्षमता पर सवाल तो उठेंगे ही न?