Monday, May 25, 2009

हिंसा की आग में झुलसता पंजाब
आस्ट्रिया (वियना) में श्री गुरु रविदास सभा नामक
एक मठ में डेरा सचखंड बल्लां के मठाधीश संत निरंजन दास और संत रामानंद दास आपने अनुयाईयों के साथ बीते रविवार को सत्संग कर रहे थे तभी कहते हैं कि विरोधी गुट के छह पगड़ीधारी लोगों ने उनपर हथियारों के साथ हमला बोल दिया। इस हमले में लगभग ११ लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। इस हमले की खबर मिलते ही पूरे पंजाब में डेरे से जुड़े अनुयाईयों के आक्रोश का लावा बह निकला। इसके बाद संत रामानंद और एक अन्य अनुयायी की मृत्यु ने आग में घी का काम किया

जितने मुंह उतनी बातें।
आम तौर पर फसादों के साथ साथ अफवाहों का बाज़ार भी गर्म हो जाता है। कोई कहता है पिछले चुनावों में ढिबरी टाइट हो जाने की वजह से अकाली नूरमहल के चुनाव स्थगित करवाना चाहते थे सो सब कुछ उनके इशारे पर हुआ। किसी का कहना था की यह हमला अकाली दल और गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के लोगों ने इस लिए किया क्योंकि यह मठ दलित वर्ग के लोगों का है और उन्होंने इस बार अकाली दल को वोट नहीं डाले। किसी का कहना था की यह झगडा दरअसल इसी समुदाय के दो गुटों का है। मेरे कुछ पत्रकार भाई यह भी बता रहें हैं की इन्हें पिछले कुछ दिनों से आस्ट्रिया में रह रहे आतंकवादियों से धमकियाँ मिल रही थीं की वे एक और गुरुद्वारा जो वहां बनाना चाहते हैं न बनायें । चूँकि यह तथाकथित सत्संग भी उस गुरूद्वारे के निर्माण से सम्बंधित था इसलिए उनहोंने हमला किया। कुछ लोग तो इस घटना को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से डेरा सच्चा सौदा और गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की पिछले एक साल से चल रही लडाई से भी जोड़ कर देख रहे हैं। इस घटना के पीछे सच्चाई जो भी हो देर सबेर सामने आ ही जायेगी लेकिन इस घटना से और उसके बाद उपजी या उपजाई गयी हिंसा से कुछ ऐसे सवाल उठ खड़े हुए हैं जिन पर विचार करना समय की दरकार के तहत निहायत ही जरूरी हो गया है।


जहाँ कहीं भी धर्म होता है , वहीं धर्मान्धता होती है। जहाँ धर्मान्धता होती है वहीं से ही धार्मिक उन्माद पैदा होता है।
तमाम
दुखों से राहत और कभी न मरने की चाहत से निकली मोक्ष की अभिलाषा और इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए की गयी ईश्वर की परिकल्पना के तहत, अपनी आदतों और सुविधाओं के करीब आती मान्यताओं ने मनुष्य को जो भी धर्म मुहैया करवाया उसने स्वीकार कर लिया. हजारों वर्षों की पीढी दर पीढी चलती आयी इस जीवन शैली ने धर्म को एक ऐसी अफीम में परिवर्तित कर दिया है जिसके नशे में आज सारा विश्व गर्क है। नशा इन्सान की सबसे बड़ी कमजोरी होता है और इसी बात को ध्यान में रखते हुए सदियों पहले से ही इसने पहले राजशाही और फ़िर सामंती व्यवस्था की देख रेख में संस्थागत स्वरुप लेना शुरू कर दिया था और वही बड़ी बड़ी संस्थाएं धीरे धीरे मठों और फ़िर किरयाना दुकानों की तरह घर मुहल्लों में फ़ैल गयीं। इन्होने इंसान को इंसान नही रहने दिया बल्कि एक विशेष धार्मिक इकाई के रूप में परिवर्तित कर दिया था. पिछली एक सदी में तो इसने एक बहुत बडे विश्व स्तरिए मंदीमुक्त उद्योग का रूप धारण कर लिया है। जाहिर सी बात है उद्योग का प्रतियोगिता और मुनाफे से सीधा सम्बन्ध होता है. मगर प्रतियोगिता जब 'गला काट दौड़' और मुनाफा, 'लालच' में तब्दील हो जाता है तो इर्ष्या और नफरत की आग भड़कती है, परिणामस्वरूप अगर किसी मठाधीश पर गोली आस्ट्रिया में चलती है तो कुछ ही घंटों के भीतर इसके विरोध में पंजाब धू -धू करके जलने लग जाता है।

अगर इस पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखें तो एक बात जो खुलकर सामने आती है वह यह है कि इस उन्माद का लावा सिर्फ़ शहरों में ही क्यों फूटा? विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों में बँटे इस समाज में (खासकर पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में) अगडों और पिछडों के बीच भेदभाव का ज़िक्र अक्सर होता रहता है । यही कारण है कि लगभग सभी गांवों में अन्य गुरुद्वारों के साथ पिछडों के रामदासिये गुरूद्वारे भी होते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि अगडों की भेद- भाव कि भावना के चलते ही पिछडों के अलग गुरूद्वारे वजूद में आए । लेकिन पंजाब का ग्रामीण ढांचा और जीवन शैली कुछ ऐसी है कि वहाँ कम अज कम संवादहीनता कि स्तिथि नही है । एक दूसरे के पारस्परिक सहयोग और सामंजस्य से चल रहे इस जीवन में जड़ता नहीं आयी है। इसलिए वहाँ जमीनी विवाद टकराव का रूप तो अक्सर ले लेते हैं लेकिन यह एक पारिवारिक फसाद से ज्यादा बडा रूप ग्रहण नहीं करता.

भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता की समस्या जितनी सूक्ष्म और जटिल है जातिये समस्या भी उससे अलग नहीं है। लेकिन देश भर में हुए असंतुलित आर्थिक विकास की तरह सामाजिक समस्यायों के स्वरुप भी पूरे देश में भिन्न भिन्न है. पंजाब में तो यह बिल्कुल ही अलग नजर आता है।

पिछले तीन दशकों के दौरान खासकर हरित क्रांति के बाद आयी थोडी बहुत सम्पन्नता के साथ साथ ही गैर सिक्ख समुदायों ने भी अनुयाईयों की अच्छी खासी फसलें तैयार की। निरंकारी, राधास्वामी और अन्य कई समुदायों ने सिक्ख गुरुद्वारों की कमाई में मोटी सेंध लगाई। सिक्ख श्रद्धालू बड़ी तेजी से इन समुदायों में शामिल हो रहे थे और इसमे एक बड़ी गिनती पिछडों की भी थी क्योंकि उन्हें एक विशाल जन समुदाय से अपनत्व और बराबरी का सम्मान मिल रहा था। गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी से जुड़े उन सिक्खों के सीने पर सौंप लोटने लगे थे, गुरुद्वारा प्रबंधन जिनके लिए हमेशा से धंधा रहा है । दांव पर लगा वर्चस्व , प्रतिष्ठा, गोलक आदि की वजह से उन्होंने निरंकारियों से उलझना शुरू किया जो अन्ततः आतंकवाद का रूप धारण कर ले गयी।

निरंकारी और राधास्वामी जैसे बड़े बजट के बाबा व् समुदायों के साथ गांव, जिला और राज्य स्तर के बाबाओं की दुकाने सजने लगी थी और कम बजट वाले श्रद्धालू उनकी तरफ आकर्षित होने लगे थे। डेरा सच्चा सौदा, संत आसा राम , मुरारी बापू आदि किसी ज़माने में लो बजट बाबाओं की गिनती में आते थे। यह बात और है की बाद में इन्होंने तरक्की के कई कीर्तिमान स्थापित किए। मुझे नहीं लगता की रविवार से पहले आपने कभी डेरा सचखंड बल्लां का नाम सुना हो। मैंने तो नहीं सुना था। न ही मुझे इस बात का इलम था कि इन लो बजट और टैक्स फ्री डेरों का जनाधार इतना बड़ा हो सकता है कि वह विश्व कि सबसे बड़ी रेल व्यवस्था को ३६ घंटे के लिए पंगु साबित कर दे।

खुम्बों कि तरह उग आए इन डेरों और बाबाओं के अनुयाईओं का नेत्रित्वहीन जनसमुदाय, नेतृत्व के बिना कैसे एक उन्मादग्रस्त भीड़ में तब्दील होकर, जब स्पष्ट रूप से कोई दुश्मन सामने ना हो तो अपने गुस्से का इज़हार गूंगी गाड़ियों को फूक कर करता है, इसका इससे बेहतर उदहारण शायद ही कहीं देखने को मिले।

तमाम मठाधीशों, सरकार और प्रशासन के सर ठीकरा फोड़ कर हम अपनी जिम्मेवारियों से नही बच सकते। चाय के प्यालों में क्रांति का उफान खड़ा करते बुद्धिजीवियों के लिए यह कहना तो आसान है कि अगडों के भेद भाव कि वजह से ही पिछडों ने अलग 'धर्मस्थलों' का निर्माण किया मगर यही बुध्धीजीवी इस बात का जवाब नही देते कि दलित लेखकों ने दलित साहित्य जैसे 'शरणस्थलों' का निर्माण क्यों किया? खैर यह कहानी फ़िर सही।

समाज में अभिव्यक्ति कि तरह विश्वास कि भी स्वतंत्रता तो होनी चाहिए लेकिन किसी भी तरह के पूर्वाग्रह, कुंठा ,भय और संशय से मुक्त आधुनिक समाज का निर्माण तभी हो सकता है जब विश्वास कि रुढियों के खिलाफ एक निरंतर संघर्ष जारी रहे।
अल्पसंख्यकों के साथ पारस्परिक विश्वास, भाईचारे और विलयन की स्वाभविक सांस्कृतिक प्रक्रिया के लिए उपायों के गंभीर प्रयास की आवश्यकता पर भी बल दिया जन चाहिए।

छदम बाबाओं की तरह छदम बुधिजीविओं की भी भरमार हो गयी है। अच्छा खासा संपन्न अधिकांश पंजाबी बुद्धिजीवी वर्ग रहन सहन से आधुनिक हुआ है, विचार के स्तर से कतई नहीं। यही कारण है कि उनके सामने प्रेम कविता का ज़िक्र आते ही पाब्लो नेरुदा का हाथ छोड़ कर वे बाबा नानक की गोद में जा बैठते देखे जा सकते हैं।यह लोग मार्क्सवाद पर संवाद कम करते हैं मार्क्सवादियों की आलोचना ज्यादा. हो सकता है आपके सामने बैठा कोई नामचीन आलोचक भरी सभा में अचानक पाब्लो पिकासो और विंसेंट वॉन गौग को दुनिया का सबसे वाहियात पेंटर घोषित कर दे और अन्य सभी को आप उसके समर्थन में मुंडी हिलाते देखें । साहित्य और कला की इस वैचारिक दरिद्रता के माहौल में आधुनिकता के पक्ष में बहस की कोई सम्भावना पैदा करने में बुद्धिजीवी वर्ग की सक्षमता पर मुझे पूरा शक है. जो डेरा सच्चा सौदा विवाद से लेकर अब तक इस जलती हुई आग के विरूद्व कम अस कम एक हस्ताक्षर अभियान चला कर विश्वास की रुढियों के खिलाफ संघर्ष की एक छोटी सी पहल भी नही कर सके उन तथाकथित बुद्धिजीवियों से क्या उम्मीद रख्खी जा सकती है? कभी भी इस अति ज्वलंत मुद्दे पर विचार करने के लिए उससे आधे लोग भी एकजुट नही हुए जितने किसी विदेशी कवित्री को देखने के लिए जुट जाते हैं तो ऐसे में बुद्धिजीवी वर्ग कि सक्षमता पर सवाल तो उठेंगे ही न?



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