Sunday, September 27, 2009

दिनमान

तुम सत्तर करोड़ हो वे सिर्फ़ साढ़े पाँच सौ
गर्व से कहो

मैं नक्सलवादी हूँ


आज सचमुच बहुत ख़ास दिन है। जैसे कि मुझे संगीत बहुत सुहाता है और आज लता मंगेशकर का जन्म दिन है। मुझे बंदूकची बड़े प्यारे लगते हैं और आज अभिनव बिंद्रा का भी जन्म दिन है। युद्ध के रास्ते असत्य पर सत्य की विजय पर मेरा अटूट विश्वास है और आज विजय दशमी है। लेकिन यह दिन आज जिस बात के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह का आज १०२वां जन्म दिन। एक ऐसा शख्स जो हमेशा से मेरा आदर्श रहा है और मेरा मानना है जिस तरह से हुक्मरान नक्सलवाद को परिभाषित करते हैं तो उन्हीं की परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि भगत सिंह देश के पहले नक्सलवादी थे और उनसे मेरा रोम-रोम इस कदर जुदा हुआ कि मैं तो गर्व से कहता हूँ कि मैं नक्सलवादी हूँ।

इस बार स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले के प्राचीर से मनमोहन सिंह ने यह पहली और आखरी बार नहीं कहा था कि नक्सलवाद इस देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है। यह बात उन्होंने और उनके कई मंत्रियों ने कई बार दोहराई है। जब कई नेता मिलकर एक बात बार बार दोहराते हैं तो मुझे हिटलर का लंगोटिया गोबल्स याद आ जाता है जो कहा करता था कि एक झूठ को सौ बार दोहराओ तो लोग उसे सच मानने लगते हैं। हर दूसरे दिन कोई न कोई नेता इस झूठ को दोहराता है तो सवाल यह उठता है कि आख़िर कारन क्या है कि सुखबीर बादल भी अचानक आधी रात को उठके क्यों चिल्लाने लगता है कि नक्सलवाद से पंजाब को भरी खतरा है? जबकि एक भूतपूर्व नक्सलवादी नेता जो बाद में खालिस्तानियों के संग जादू कि जफ्फी डाले फिरता रहा और जिसका नाम मालविंदर माली है, उसके पिता प्रकाश सिंह बादल का निजी सचिव है. यह बात आम लोग बेशक न जानते हों पर सुखबीर तो जानते ही हैं फिर भी उन्हें नक्सलवाद से भरी खतरा क्यों महसूस हो रहा है? पंजाब ही नहीं महाराष्ट्र, केरल, असम, गुजरात आदि हर राज्य का हर बड़ा नेता चिल्ला रहा है कि नक्सलवाद से उन्हें भारी खतरा है। आखिर चक्कर क्या है?
चार दशक पहले बंगाल के एक छोटे से गाँव नक्सलबादी से उठा यह आन्दोलन पाँच साल के भीतर ही दम तोड़ गया था। मुख्य नेता चारू मजुमदार नहीं रहे। कानू सान्याल, जंगल संथाल जैसे बहुत से नेता निष्क्रिय हो गए या यों कह लीजिये उनका मार्क्सवाद पर से विश्वास ही उठ गया। बाकि बचे चंद्रपुल्ला रेड्डी और बी नागी रेड्डी तो वह दोनों इस बात पर इस बात पे मुंह फुला कर अलग हो गए कि किसानों में काम करना चाहिए या मजदूरों में। चंद्रपुल्ला रेड्डी ने किसान संभल लिए और नागी रेड्डी ने मजदूर। वो भी जब नहीं चले तो चल बसे। सत्य नारायण सिंह जो इनमे से सबसे अच्छे वक्ता थे और जिनका हिन्दी भाषी क्षेत्र में अच्छा खासा रुतबा था इमर्जेंसी के बाद जनता राज में माफीनामे पर दस्तखत करके बहुत से साथियों सहित बहार आ गए। बाहर उनकी इतनी तोये-तोये हुई और ज़मानत दिल पर ऐसा बोझ बनी कि दिल का दौरा पड़ने से चल बसे। एक कोंडापल्ली सीतारमैया बचे रहे एक जंगलों में यूनिटी सेंटर चलते रहे एक नाग भूषण पटनायक थे जो जेल में थे और जिन्हें फँसी कि सजा सुना दी गयी थी।
सभी ग्रुपों की यह हालत हुई कि नेताओं के नाम कि बजाय यह ग्रुप इनकी पत्रिकाओं के नाम से पहचाने जाने लगे. चारू मजुमदार वाले सी पी आई (एम् एल) यानि कि 'लिबरेशन' ग्रुप कि कमान कानपुर के एक इंजिनियर विनोद मिश्रा(वी एम् ) ने संभाल ली थी।उसे विचारधारा के प्रति समर्पित ऐसे आत्म बलिदानियों की फौज मिल गयी थी कि उसने कुछ ही वर्षों में बिहार, बंगाल से लेकर दिल्ली तक अच्छा काम फैला लिया था। उसका किसान संगठन बिहार के जातीय अंतर्विरोधों के चलते अच्छी पकड़ बना गया और इसका वी एम् को अच्छा फायदा हुआ।
उसने मध्य वर्ग में खासकर छात्रों और बुद्धिजीवियों के बीच फैलते अपने जनाधार के लिए एक खुला मोर्चा भी खोल दिया। जिसका नाम इंडियन पीपुल्स फ्रंट था। नागभूषण पटनायक जब जेल से परोल पे रिहा हुए तो उन्हें उसने इसका अध्यक्ष बना दिया। नाग भूषण जी सज्जन पुरूष थे अपनी विचारधारा के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित सो अपनी अन्तिम सांसों तक उन्होंने इस जनसंगठन को अपने तमाम बीमारियों के बावजूद एक विशालकाय जनसंगठन बनने में अद्भुत योगदान दिया। बाद में फ्रंट चुनावों में भी भिड़ने-जीतने लगा और अंततः पार्टी में शामिल हो गया। वी एम् बेचारा अपनी महिला कार्यकर्ताओं से शादी करते-करते थक गया था।
फिर वह अपनी भूतपूर्व बीवियों से पैदा हुए अपने बच्चे अगवा करवाने लगा. इसी थकान कि स्तिथि में जब उसे पता चला कि उसके जैसे लाखों नौजवान जो अपना भविष्य दाव पर लगा कर उसके साथ चले थे उसकी हरकतों को बर्दाश्त करते करते थक गए हैं। सो वह भी चल बसा।

सीतारमैया के अलावा बिल्कुल छोटे छोटे ग्रुप बचे थे जिनका जनाधार बिल्कुल न के बराबर था पर बहुत से लोग इनके समर्थक थे, गाँव में भी और शहरों में भी। जो लोग मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी विचारधारा से सहमत थे वे लोग इन छोटे-छोटे ग्रुपों के लगातार संपर्क में रहते हुए सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों में सक्रिय रहे और फैलते गए। इनमें छात्रों, शिक्षकों, वकीलों, लेखकों, पत्रकारों कि एक भारी तादात थी। इनको सभी राज्यों की सरकारों ने दमन के रास्ते दबाने का प्रयास किया। संस्कृतिकर्मी ग़दर को जेल में डाला। डॉ स्वामीनाथन जो मानवी अधिकार संगठन चलते थे उनकी हत्या दिन दिहाड़े उनके क्लिनिक में की। मगर यह संख्या दिन प्रतिदिन बढती ही चली गयी।
सीतारमैया ग्रुप से जुड़े माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एम् सी सी ) जैसे बहुत से ऐसे ग्रुप थे जो संसदीय संघर्ष को सही नहीं मानते थे और जिनका मानना था कि सशत्र क्रांति के जरिय ही इन्कलाब लाया जा सकता है वह भी मजबूत होते चले गए। इसका कारण था राजकीय दमन निरंतर दमन। पहले बड़े भूमिपतियों की सेनाएं और प्रशासन इनके विरोध में थे और वोटों कि राजनीति हमेशा इनके खिलाफ रही। क्या मनमोहन सिंह नहीं जानते अरवल काण्ड कहाँ हुआ था? क्या उन्होंने सचमुच ब्रह्मर्षि सेना का कभी नाम नहीं सुना? क्या सचमुच उन्हें नहीं पता कि कालाहांडी नाम की जगह किस देश में है? मनमोहन सिंह बेचारे कुछ नहीं जानते. बहुत ही 'भोले-भाले' हैं।
1991 से ही जब विकास के नाम उद्योगपतियों के फायदे के लिए पाँच हज़ार साल पुराणी कृषि संस्कृति के वाहक और अन्नदाता भूमिपुत्रों से उनकी ज़मीन छीनी जाने लगी तो मुझ जैसे कई लोगों ने उनके समर्थन में में आवाज़ बुलंद की. १८९४ के अंग्रेजों के बनाये भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध भी किया. मगर नंदीग्राम तक उन्हें कोई नक्सलवादी दिखाई नहीं दिया था. जैसे जैसे राजनितिक गलियारों में यह बात फैली कि १९९१ से लेकर १९९६ तक आंध्र प्रदेश,महारास्त्र, मध्य प्रदेश और ओड़ीसा जैसे चार नक्सल प्रभावित राज्यों में पचास हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा रकम खर्च हुई और इससे मुंह मीठा करने वालों में सत्ता और विपक्ष दोनों के राजनेता शामिल थे तो ज़ाहिर सी बात है सबको अपने अपने प्रदेश में नक्सलवादी दिखाई देने लगे।
माओवादियों ने भी अराजक हिंसा फैला कर जहाँ एक तरफ़ सत्ताधारियों को सरकारी खजाना लूटने के रास्ते खोल दिए वहीं संसदीय चुनावों का बहिष्कार करके अपनी लड़ी हुई लडाई का फायदा कांग्रेस और ममता बैनर्जी को पहुँचाया। सत्ताधारियों ने इसे विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बताया है।
आज मुद्दा यह नहीं है कि नेताओं में से कौन सही है कौन ग़लत। मुद्दा यह भी नहीं है लूट का माल कहाँ जाता है।
हम यह भी मान लेते हैं कि मनमोहन सिंह को पता ही नहीं है कि देश को कौन लूट रहा है? पर यह ज़रूर है कि क्या एक गाँव, एक तहसील या एक जिले में एक भी इमानदार और पढ़ा-लिखा इंसान नहीं है जो न्याय के पक्ष में खड़ा हो सके। बस ऐसे साढे पाँच सौ इमानदार लोगों कि ज़रूरत इस देश को है। जो एक लोकपक्षीय सरकार नहीं वैकल्पिक लोकपक्षीय व्यवस्था के निर्माण के लिए आगे आए। इसकी संभावना पर शक मत करो। आज भी खेती से जुड़े लोगों कि गिनती सत्तर करोड़ है। सभी पार्टियों के सिर्फ़ हजार बारह सौ लम्पट इस देश का भविष्य उलट-पलट रहे हैं। हमारे बच्चों का भविष्य साढे पाँच सौ लोगों ने दाव पर लगा रखा है।
शहीद भगत सिंह ने कहा था कि गोरे अँगरेज़ चले जायेंगे फिर हमारे ऊपर काले अंग्रेजों का राज़ होगा। यह काले अँगरेज़ इतनी जल्दी और आसानी से हमें छोड़ने वाली नहीं हैं। यह हमें कभी माओवादी और कभी नक्सलवादी कहेंगी। पर अब हमें अपनी ज़मीन के टुकड़े के लिए नहीं पूरे देश के लिए लड़ना होगा. राजनीति से शर्म करने कि बजाये खुल के सामने आकर कहना होगा कि अगर शोषणमुक्त समाज कि कल्पना करना नक्सलवाद है तो शहीद भगत सिंह नक्सलवादी था और मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं नक्सलवादी हूँ।

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