Sunday, November 15, 2009

श्रद्धांजलि

प्रभाष जोशी जी की याद में
जुआ
किसी का हुआ


अबके प्रभाष जी गच्चा दे गये। वह भी उस वक़्त जब इस लोकतंत्र के चौथे खम्भे ने भी देह व्यापार शुरू कर दिया है। इस आपात स्तिथि में उन्होंने देह व्यापार के ख़िलाफ़ सिर्फ़ कलम ही नहीं उठा ली थी बल्कि कुलदीप नय्यर जी के साथ एक निर्णायक लड़ाई का ऐलान भी कर दिया था। लड़ते हुए वह चले जाते तो और बात थी मगर सटोरियों के क्रिकेट जैसे खेल की वजह से उन्होंने दिल क्या छोड़ा दुनिया छोड़ दी यह बात अपन को कुछ जमी नहीं।इसलिए उनकी मौत का सदमा कुछ ज्यादा भारी है।

उन्हें क्रिकेट की लत थी और कोई भी लत, जिंदगी से कम कुछ नहीं मांगती। यही लत उनकी जान ले बैठी।जिसका मुझे बेहद अफ़सोस है। उन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि बाज़ार और सट्टेबाज़ इसी खेल के जरिये उन जैसे सब लोगों की सुच्ची सोच को नियंत्रित कर रहे हैं जो उनके खिलाफ हैं। क्यों इस खेल कि प्रतियोगिताएं को चुनाव के चलते आगे-पीछे कर दिया जाता है? कैसे 'एक रोज़ा मैच' या २०-२० के (जिसे प्रभाष जी बसम-बीस कहते थे) घमासान के आयोजन के जरिये नंदीग्राम,मंहगाई, ज़मीन अधिग्रहण, आतंकवाद जैसे तमाम मुद्दों से जुड़ी आदमी की सोच को कई घंटे पीछे धकेल दिया जाता है और आदमी को पता भी नहीं चलता। कैसे आम आदमी सियासत के दल्ले के बारे में नहीं बल्कि सचिन के बल्ले के बारे में अपने बच्चों को रस ले-लेकर जागृत करता है?

प्रभाष जी कभी जान ही नहीं पाए, न उन्होंने कभी जानने की कोशिश की कि हमारे बच्चों के बस्ते,कापियों, फुट्टे-जुराबों से लेकर दिमाग के भीतर तक उनके गाँधी और मेरे भगत सिंह की तस्वीरों की जगह सचिन और शेन वार्न की तस्वीरें कौन चिपका गया? हमारे सपनों के भारत के हर नागरिक के भविष्य के आगे यही क्रिकेट कैसे एल. बी. डब्ल्यु. साबित हो रहा है? वह बड़े फख्र से ख़ुद को 'क्रिकेट का बावला' कह-कह कर मस्ताते रहे।

मुझे लुडविग बॉर्न की कही एक बात याद आती है। लुडविग बॉर्न ने एक बार लिखा था
"यूरोप के जुआघरों में हर साल जितनी ऊर्जा और मानसिक शक्ति खर्च होती है, यदि उसे बचा लिया जाए तो वह रोम के लोगों को संस्कारित करने और रोम के इतिहास को बचाने के लिए काफी होगीलेकिन जो है सो हैपैदा होने वाला हर आदमी रोमन होता हैबुर्जुआ समाज उसमें से रोम को निकाल देना चाहता है, इसलिए हैं जुए के खेल..... ।"

क्रिकेट की इस लत की वजह से वह जो रस ले-लेकर लिखते थे, उसको लेकर सबने उन्हें बथुए के झाड़ पर चढाये रखा। आज भी उनके क्रिकेट के जनून को सब महिमामंडित करते हुए दिखाई देते हैं। कोई इस बात को लेकर चिंतन-मनन की स्तिथि में नहीं दिखाई देता कि अगर उन्हें यह लत होती तो वे क्या कुछ और कर जाते। जब वक्त था तो किसी ने कुछ कहा नहीं अब तो ग़ालिब को याद कर यही कहा जा सकता है कि यूँ होता तो क्या होता?

तमाम असहमतियों के बावजूद उनकी उपस्तिथि हमेशा बल देती थी। जब भी कोई संकट आता है छोटे हमेशा बड़ों के मुंह की तरफ़ देखते हैं। हम भी देखा करते थे कि देखें प्रभाष जी क्या कहते हैं। बेशक उनसे शत-प्रतिशत सहमति हों, हों तब भी। बुझने से पहले जैसे दिया एक बार जोर से जलता है, वैसा ही कुछ हुआ सा लगता है। वह भी पिछले कुछ महीनों से जरूरत से ज़्यादा सक्रिय हो गए थे। किसानों कि ज़मीनें छीनी जाने पर उन्हें इस झूठे लोकतंत्र पर शंका की दृष्टि से देखते हुए देखना अच्छा लगता था। महाराष्ट्र की एक महिला मजदूरिन ठाकुबाई के हक में उनका कहना 'ठाकुबाई ने ठोका है' सुनकर नशा सा हो जाता था और मैं भूल जाता था उनके माथे पर चिपकी उस गोंद-पर्ची पर 'रूपकंवर' लिखा है।

फोन पर उनका झट से गद-गद हों जाने और फट से द्रवित हों जाने पर पिता जी की बात याद आती कि 'बुढ़ारी में होता है।' उनकी व्यस्तताओं को देखकर लगता था कि 'बाबा नागार्जुन जैसे ही हैं।'

उधर
इंडियन एक्सप्रेस वाले शेखर गुप्ता आदिवासियों के अधिकारों की बात करने वालों को 'झोलाछाप बुद्धिजीवी' कह कर गरियाते और इधर प्रभाष जी बड़ी निडरता से जंगल और ज़मीन के असली हकदारों के पक्ष में अपनी बात कुछ इस तरह से रखते कि 'हमारे जंगल आदिवासियों ने नहीं काटे हैं विकास करने वालों ने काटे हैं। हमारे पर्यावरण और पारिस्तिथिकी को वनवासियों से खतरा नहीं है। खतरा उन लोगों से है जो यूरोप-अमेरिका की नक़ल के विकास से सर्वनाश के रस्ते पर चल निकले हैं।' ऐसा कहते-लिखते हुए सर्वेश्वर जी के शब्दों में वे और सुंदर दिखने लगते थे।सर्वेश्वर जी कि एक कविता की आखरी पंक्तियाँ कुछ इस तरह से हैं कि 'जब भूख के खिलाफ लड़ने के लिए आदमी उठ खड़ा होता है और सुन्दर दिखने लगता है।'

अपनी बात को कहने कि बजाये लिख कर वह ज्यादा बेहतर ढंग से संप्रेषित कर पाते थे। अपने बाद वाली पत्रकार पीढ़ी को लेकर भी वह कितना दिल से सोचते थे इस बात का पता मुझे तब पता चला जब राकेश कोहरवाल के गुज़र जाने के बाद उन्होंने 'कागद कारे' में 'हाथों पर खून' लिखा। उस लेख की आखरी पंक्तियाँ थीं 'राकेश , अलोकऔर महादेव तीनों मुझे अपराध बोध देते हैं। कैसे होनहार जीवन कैसे बिगड़ गए। क्या खून मेरे हाथों पर है?'

मालिकों के किसी भी दबाव में आकर किस तरह धड़ल्ले से पत्रकारिता की जाती है, इसकी वे एक मिसाल थे।सियासी और धार्मिक जत्थेबंदियों से विपरीत परिस्तिथियों में जिस ठसके के साथ वह पेश आते रहे, देखकरआश्चर्य होता था कि यार ये बन्दा अभी तक वर्ण व्यवस्था का समर्थक कैसे हो सकता है? अखबार की पवित्र जगह को बेचकर अपवित्र करने वाले तो बेशक उनके जाने से बहुत खुश होंगे और वह भी जो उनसे पूछते थे 'खतना करवा लिया क्या?' और वह भी...
सुना है उनके आखरी शब्द थे 'अपन मैच हार गए।' ऐसा हो तो नहीं सका लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि भारत-ऑस्ट्रेलिया की इस सीरीज़ के शुरू होने से पहले ही भारत के हार जाने की सट्टा बाज़ार की ख़बरों पर उन्हें अबके विश्वास हो जाना थाऔर कागद कारे में उन्होंने यही लिखना था :'जुआ किसी का हुआ'

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